एक बार फिर रुला गए रामानंद सागर.....

एक बार फिर रुला गए रामानंद सागर..... !!
✍️मधुप्रकाश लड्ढा,राजसमन्द(राज.)
mpladdha@gmail.com
आज दशकों बाद दूरदर्शन ने फिर से 'रामायण' का प्रसारण शुरू किया। सीरियल भी वही था, देखने वाली आंखे भी वही थी। बदला बदला सा है तो बस मौसम। हंसी खुशी के वातावरण को आज भय और ख़ौफ़ ने निगल रखा है। इसीलिए, आज एक बार फिर से हमें अपनी जड़ों की और लौटने की आवश्यकता है। 
80 के दशक की बात ही कुछ और थी। 1987 में जब रामायण का प्रसारण शुरू हुआ था तब घर पर टीवी नहीं थी। घर से कुछ दूरी पर टीवी देखने जाते थे। इंसान इतने अच्छे थे कि उनका पूरा घर टीवी देखने वालों से भर जाता पर किसी से कोई गिलाशिकवा नहीं। थोड़े दिनों बाद तो पिताजी भी टीवी ले आये थे। वाह ! क्या आनंद था। 
देखने का आनंद तो आज भी आया लेकिन परिस्थितियां बहुत बदल गई। कुछ साथ थे जो छूट गए, कुछ अपने थे जो बिछुड़ गए। धारावाहिक में तो आज भी रामजी के साथ माता कौशल्या और दशरथ जी दिख रहे थे लेकिन मेरे जैसे कई दर्शक ऐसे भी होंगे जिनके दशरथ या कौशल्या, या शायद दोनों ही नीलाम्बर के तारे बन चुके हैं। 
सीरियल तो आज भी देखा लेकिन माता पिता के साथ नहीं, पत्नी और बच्चों के साथ सोफे पर। दरी बिछाकर बैठने वाली उस मां की सूरत मन मस्तिष्क और विचारों में उस गहराई तक उतर गई जहां किसी और का देखना सम्भव नहीं। यही तो है जीवन के सुनहरे अहसास जो जाने अनजाने ही मानस पटल पर कौंध जाते हैं। 
रामायण का पहला ही एपिसोड, माता पिता के नहीं होने का अहसास करा गया। आंखों में खुशी और गम की मिश्रित नमी थी। लेकिन कौन समझ पाएगा की आंख के कोनो से टपकी अश्रु की ये बूंदे आज किसे याद कर रही है ! यही तो है 'जीवन धारा'। कल वो बहे थे, आज हम और कल कोई और बहेगा। यह सृष्टि का क्रम है जो अनवरत चलता ही रहेगा। 
पहले भी रामायण के बाद ही महाभारत आई थी और आज भी रामायण के बाद ही महाभारत आई है। रामायण को जीवन में नहीं उतार पाए तो महाभारत निश्चित है।
तो आइये, क्यों नहीं हम भी 'राग संतोष' की ओर लौट चलें जहां हर किसी को सुकून और शांति की तलाश है। 


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